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अभी कुछ दिनों पहले दैनिक ट्रिब्यून में इस किताब का रिव्यू पढ़ा तभी से पढने का मन कर गया…. ट्रिब्यून के अनुसार “देवदत्त और उनके खोए बेटे केतन का वियोग समझाती, धुआं छोड़ती, टीस को गहराती, अपने और आसपास के माहौल को जिंदा बनाती-बताती कहानी है उपन्यास ‘चाय का दूसरा कप’ …”
ये उपन्यास पिता-पुत्र के रिश्तों के गलियारों में टहलते हुए कई बार आपके अन्दर तक उतर जाने का माद्दा रखता है…कहानी शुरू होती है पिता (देवदत्त) के खालीपन से… उनका इस दुनिया में कोई भी नहीं एक पुत्र के सिवा और वो भी ७ दिनों से लापता है…. वो चलते चलते ठिठक जाते हैं, जैसे किसी ने आवाज़ दी हो…
वो पलटकर देखते हैं.. कुछ इस अंदाज़ से जैसे आवाज़ के चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहे हों… आवाजें…. इतनी सारी आवाजें…. आवाजों का बीहड़…. लेकिन वो आवाज़ जो उन तक पहुंची थी, कहीं नज़र नहीं आती … दूर तक कोई जानी पहचानी शक्सियत भी नज़र नहीं आती, की जिसने आवाज़ दी हो… शायद आवाज़ किसी ने भी नहीं दी.. शायद वहम हो… शायद कोई लावारिस या भटकी हुई आवाज़ उनके सामने आ गिरी हो… किसी लहू-लुहान अदृश्य परिंदे की तरह…. वो जानते हैं उन्हें आवाज़ देने वाला कोई नहीं.. फिर भी वो चलते चलते कोई सगी सी आवाज़ सुन लेते हैं…. पराई दुनिया में सगी सी आवाज़, जो होती नहीं…. होने का भ्रम रचती है….
ख़ामोशी की कितनी तहें ज़म चुकी हैं उनके अन्दर… जैसे ख़ामोशी का कोई थान हो– तहाकर रखा गया थान… ख़ामोशी का थान… किसी के साथ न बोलना, अपने अन्दर के बहुत सारे विस्फोटों को सुनने जैसा होता है…
केतन के लौट आने की जिस बेताबी के साथ देवदत्त प्रतीक्षा करते हैं, वो मारक सिद्ध होती है उनके लिए… देवदत्त इन आठ दिनों में कितने बदल गए हैं… वो इंसान नहीं लगते, कोई पिरामिड लगते हैं–हज़ारों साल पुराना पिरामिड–चुपज़दा पिरामिड ! अपने अन्दर, अकेलेपन की अजीब सी गंध और उदासी की बेतरतीब लिपियों को समेटे हुए एक पिरामिड… जैसे चल न रहा हो रेंग रहा हो… अपने समय की वर्तमानता से पिछड़ा हुआ, डरा हुआ पिरामिड…. देवदत्त…
इसी तरह के ज़ज्बातों से लिपटी हुई कहानी आगे बढती है, लगभग आधा उपन्यास ख़त्म कर चुका हूँ… कहानी में भले ही कोई रोमांच न हो लेकिन कहानी एकदम अन्दर दिल में उतरकर चहलकदमी करती है… कई बार आखों के कोर नम हो जाते हैं… एक पिता के आस पास पसरा ये एकांत…. उफ्फ्फ्फ़…
मुझे इस किताब को पढ़ते पढ़ते कई बार ये ख्याल आया कि कैसा लगेगा अगर कोई ऐसा जिसके साथ आप हर रोज अपने कई सारे लम्हें जीते हों वो अचानक से कहीं ओझल हो जाए… और अगर वो आपको कोई अपना हो, सोच के ही मन में एक रुदन सा होने लगता है… एक एकाकी पिता के लिए उनके दोस्त जैसे बेटे का लापता हो जाना … हर बार देवदत्त उसे लापता मानने से इनकार कर देते हैं, क्यूंकि गुमशुदा केतन नहीं वो खुद हो गए हैं उसकी स्मृतियों के बीच… उनके हिसाब से वो लौट आएगा थोड़े वक़्त के बाद… लेकिन तब तक का इंतज़ार देवदत्त जी नहीं पा रहे हैं… उनके हर उस लम्हें में घुट घुट कर जो बेबसी के कांटे उभरते हैं उनको सीधे साफ़ सटीक शब्दों में उतारने में सफल हुए हैं ज्ञानप्रकाश विवेक …
बहुत दिन पहले देवदत्त बड़ी उम्मीद, भरोसे और विश्वास के साथ पुलिस स्टेशन गए थे, गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने… क्या हश्र हुआ था उनका ? जैसे अपना वजूद गुम कर आये हों… रास्ते में वो ऐसे चलते रहे जैसे बिना पैरों का आदमी… वो चलते रहे…. उनके भीतर कोई खलिश रेंगती रही…पुलिस स्टेशन का ठस्स माहौल उनके पीछे पीछे चलता आया.. वो घबराते रहे.. सोचते रहे– ऐसा लगता था, वहां इंसान नहीं लोहे के आदमी बैठे है.. ऐसे लोहे के आदमी जो दूसरों के दुःख को भी मखौल में बदल देते हैं…
बेजान चीजें कई बार कितना तंग करती हैं। जैसे जिंदा होकर सामने आ बैठी हों आपसे जिरह करती हुईं। जैसे कि यह कप, जो देवदत्त के हाथ में है, जिस पर ‘डैड’ लिखा है अंग्रेजी में। इसे केतन लाया था, देवदत्त के बर्थडे पर। पापा के लिए वह महंगे गिफ्ट खरीदता था। एक बार उसकी जेब में पैसे कम थे। उसने इस कप को गिफ्ट के रूप में देवदत्त को पेश किया। देवदत्त खुश हो गया। उन्होंने केतन से हाथ मिलाया। दोस्त हाथ मिलाता है, देवदत्त को याद है। उस दिन केतन ने चाय बनाई। इसी नए कप में, जिस पर डैड लिखा हुआ था, चाय डालकर पापा के सामने, मेज पर कप रखते हुए कहा था, ‘पापा, आप इस कप में चाय पीयेंगे तो मुझे लगेगा यह मेरा मामूली-सा गिफ्ट बहुत बड़ी चीज हो गया है।’
रैक में रखे केतन के नए जूते उठाकर सूंघने लगे हैं देवदत्त… कोई जूते भी सूंघता है किसी के भला… केतन पुराने जूते पहनकर चला गया, नये जूते छोड़ गया। देवदत्त केतन की गंध को महसूस करना चाहते हैं। चाहे वह पैरों की गंध हो या पसीने की… कोई शख्स न हो तो.. उसके न होने की भी गंध होती है। देवदत्त शायद उसी गंध को महसूस कर रहे हैं...
पहली बार किसी किताब के बारे में लिखा… उम्मीद है आपको पोस्ट अच्छी लगी होगी और ये किताब ज़रूर पढ़ें , किताब भी अच्छी लगेगी …
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